मालिक तेरी रजा रहे, और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे।।
अब न पिछले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत, बस दिले-बिस्मिल में है।।
जिस राष्ट्र में क्रांतिकारियों के हृदय में मर-मिटने की ऐसी प्रबल भावना हो।
उस राष्ट्र को कोई विदेशी कब तक गुलाम बनाए रख सकता है। ये दोनों शेर कहे थे
अमर क्रांतिकारी और शायर रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने; भला उन्हें कौन भुला सकता
है। और ये पंक्तियाँ उसी वीर ने फाँसी चढ़ने से पूर्व कही थी। ऐसे ही अनेक
क्रांतिकारियों के वीरतापूर्ण और साहसिक कार्यों से भरा पड़ा है; चाँद का यह
फाँसी विशेषांक। यूँ तो संसार के रंगमंच पर सभी अपना-अपना किरदार निभाते हैं।
फिर चले जाते हैं। जो किसी उद्देश्य के लिए प्राणों की आहुति देते हैं; वो
मृत्यु का वरण करके भी सदैव जीवित रहते हैं। जब भी तारीख के पन्नों को पलटा
जाता है और उनके निभाए किरदार की चर्चा होती है; वह पुनः जीवित हो उठते हैं।
जी हाँ, मैं जिक्र कर रहा हूँ। ऐतिहासिक महत्व के चाँद पत्रिका के 'फाँसी अंक'
का। जो नवंबर 1928 ई. को कागज पर आया था। जिसे कालातीत हुए आज 88 बरस हो गए
हैं। इस अंक के लिए मै रामरिख सहगल साहब को विशेष तौर पर धन्यवाद देना चाहूँगा
कि इसके संपादन का जिम्मा उन्होंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी को सौंपा।
जिन्होंने 'वैशाली की नगरवधू', 'वयं रक्षामः', 'सोमनाथ' और 'आलमगीर' जैसी अमर
कृतियाँ हिंदी साहित्य को दी हैं। आइए इस लेख के जरिए हम उन लम्हों को एक बार
पुनः जी लें।
दिवाली के अवसर पर चाँद का 'फाँसी अंक' नवंबर 1928 ई. को प्रकाशित हुआ था।
इसके आयोजक व प्रकाशक रामरिख सहगल देशप्रेमी व्यक्तित्व के स्वामी थे।
जिन्होंने चाँद का प्रकाशन 1922 ई. में इलाहबाद से आरंभ किया था। सवा तीन सौ
पृष्ठों में सिमटा यह 'फाँसी अंक' तत्कालीन ब्रिटिश राज का जीवंत दस्तावेज बन
चुका है। आचार्य का प्रशंसक मैं उनके उपन्यासों और कहानियों से रहा हूँ; लेकिन
'चाँद' का 'फाँसी अंक' देखने के बाद, मैं उनके संपादन का भी मुरीद हो गया हूँ।
इस अंक पर की गई उनकी मेहनत यत्र-तत्र-सर्वत्र दीख पड़ती है; लेकिन सारा श्रेय
वह चाँद से जुड़ी पूरी टीम को देते हैं। उन्होंने लिखा है, 'पूरे डेढ़ महीने तक
प्रेस के प्रत्येक कर्मचारी ने सहर्ष और ईमानदारी से चाँद की सफलता के लिए
अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है और सहगल जी? उन्होंने रात-दिन जागकर तथा
स्वास्थ की तिलमात्र भी चिंता न कर, जिस मनोयोग से इस अंक की सफलता में योग
दिया है वह उन्हीं का काम था। दस रोज तक उन्हें भयंकर ज्वर रहा; उसी हालत में
उन्होंने सारा कार्य किया है। इतने बड़े विशेषांक के प्रकाशन में अनेक
त्रुटियों का रह जाना संभव है और खासकर ऐसी परिस्थिति में, जबकि चाँद के
प्राण-स्वरूप मित्रवर सहगल जी स्वयं बीमार थे। फिर भी जो कुछ हो सका है,
पाठकों के सामने है। पाठकों को आश्चर्य न होना चाहिए, इस अंक के दस हजार
प्रतियों के प्रकाशन में इतने परिश्रम और दौड़-धूप के अलावा साढ़े बारह हजार
रुपये व्यय हुए हैं।' साढ़े बारह हजार रुपये का पूरा ब्यौरा भी आचार्य ने लिखा
है : (420 कागज की रीम - 3,280 / कंपोजिंग और छपाई - 3,300 / ब्लॉक और डिजाईन
बनवाई - 1,068 / तिरंगे चित्रों - 1,200 / रंगीन चित्रों - 200 / चालीस रीम
आर्ट पेपर - 1,000 / कवर बनवाई-छपाई - 155 / लिफाफों का कागज और छपाई - 210 /
अतिरिक्त टिकट (पोस्टेज) - 850 / संपादकीय व्यय, पुरस्कार, तार-चिट्ठी आदि -
1,050 / फुटकर - 387 / कुल जोड़ - 12,500)। इस ब्यौरे में कार्यालय के
कर्मचारियों का वेतन, बिजली, किराया-मकान तथा विज्ञापन आदि की छपाई और कागज
आदि व्यय शामिल नहीं था। यह दर्शाने का अभिप्राय इतना है कि, आचार्य न केवल
पत्रिका का संपादन कर रहे थे बल्कि एक लेखक के रूप में छोटी से छोटी बातों तक
को बारीकी से देख रहे थे।
पत्रिका की शुरुआत आचार्य द्वारा पाठकों से की गई 'विनयांजलि' से होती है -
'चाँद' की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में - दीपावली के शुभ अवसर पर -
'फाँसी अंक' जैसा हृदय को दहलाने वाला साहित्य सौंपते हमारा हाथ काँपता है।
परंतु हम नंगे हैं, भूखे हैं, रोगी हैं, निराश्रय हैं; हम थके हुए, मरे हुए और
तिरस्कृत हैं; हम स्वार्थी; पापी और भीरु हैं; हम पूर्वजों की अतुल संपत्ति को
नाश करने वाली संतान हैं, बच्चों को भिखारी बनाने वाले माता-पिता हैं! रूढ़ि
की वेदी पर स्त्रियों को बलिदान का पशु बनाने वाले पुजारी हैं! खानदानी बाप के
कुकर्मी बेटे हैं! प्यारी बहिनों, माताओं, भाइयों और बुजुर्गों! 'फाँसी-अंक'
को दिवाली की अमावस्या समझिए! देखिए, इसमें बीसवीं शताब्दी के हुतात्मा के दिए
कैसे टिमटिमा रहे हैं, और देखिए, स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत अग्नि धायँ-धायँ
जल रही है; और सब के बीच में जाग्रत-ज्योति - मृत्यु-सुंदरी - कैसा श्रृंगार
किए छमछमा कर नाच रही है? पूजो! भाग्यहीन भारत के राज्य-पाट, अधिकार-सत्ता और
शक्तिहीन नर-नारियों, यही तुम्हारी गृहलक्ष्मी है। यही मृत्यु-सुंदरी, यही
अक्षय-यौवना, यही महामामयी! महामाया! तुम इसे प्यार करो, इससे परिचय प्राप्त
करो, इसे वरो, तब? तुम देखोगे कि ज्यों-ही यह तुम्हारे गले का फंदा होने के
स्थान पर हृदय का लाल तारा बनेगी, तुम्हारी सहस्त्रों वर्ष की गुलामी दूर हो
जाएगी? जैसे प्रबल रसायनिक के हाथ में आकर काल-कूट विष अमृत के समान
प्रभावकारी हो जाता है, उसी प्रकार यह गले का फंदा बहिनों का सौभाग्य-सिंदूर
और भाइयों की कुमकुम की पिचकारी बनेगी। ओह! उस फाग का उल्लास कब भारत की 22
करोड़ गोपियों को नसीब होगा! उस अक्षय-सुंदरी को राधा-पद देकर कब वह
कृष्ण-मूर्ति स्फूर्ति की वंशी बजाएगी? कब? कब? कब?
इस अंक की सामग्री में क्रमशः पंद्रह कविताएँ; पाँच कहानियाँ; बारह लेख; चार
इतिवृत्त; एक हास्य-व्यंग्य और दो नाटक के अलावा अंतिम भाग में विप्लव यज्ञ की
आहुतियाँ (पृष्ठ 244-322 तक) लगभग पचास से ऊपर ऐसे क्रांतिकारियों के कार्यों
और जीवन पर संक्षिप्त रूप से रोशनी डाली गई है। जिन्हे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार
ने फाँसी की सजा दी थी। कुछ क्रांतिकारियों के चित्र भी मौजूद हैं। इस हिस्से
की जानकारी और चित्र-लेख आदि उस समय के क्रांतिकारियों में स्वयं आचार्य
चतुरसेन जी को उपलब्ध कराए थे। जिन्हें क्रांतिकारियों के छद्म नामों से
आचार्य ने फाँसी अंक में प्रकाशित किया था ताकि जीवित क्रांतिकारियों पर कोई
आँच न आए। इस बारे में आचार्य ने अपने एक संस्मरण 'पहली सलामी' में जिक्र करते
हुए लिखा है - 'एक दिन भोर के तड़के ही पुलिस के दल-बादल ने मेरा घर घेर लिया।
...मैं समझ गया था कि पुलिस के मेधावी जनों ने चाँद के फाँसी अंक से इन
क्रांतिकारियों (भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त आदि) के संबंध की संभावना से ही यह
धावा किया था। यद्यपि मुझे उक्त अंक के लिए, बीसवीं शताब्दी की राजनीतिक
हुतात्माओं के संपूर्ण चित्र और चरित्र ही उन लोगों से प्राप्त हुए थे, परंतु
यह भी सत्य है कि मैं उन युवकों के संबंध में बहुत काम जानता था। उन लोगों
द्वारा जो सामग्री मुझे मिली थी, उसके मैंने खंड-खंड कर डाले थे। एक-एक चरित्र
को पृथक करके उसके नीचे लेखक का कोई एक काल्पनिक नाम दे डाला था।' आचार्य के
इस संस्मरण का जिक्र सुरेश सलिल जी ने स्वर्ण जयंती (1997 ई.) में फाँसी अंक
के पुनः प्रकाशन की 'प्रस्तावना' में किया है। कई क्रांतिकारी स्वयं कुशल लेखक
व कवि भी थे। जैसे क्रांतिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल' एक बेहतरीन शायर भी थे -
'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में
है।' इस अमर रचना और उसके रचियता को कौन भूल सकता है। 'बिस्मिल' जी, 'अज्ञात'
और 'राम' नाम से उस समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। शहीदे-आजम भगत
सिंह जी, 'बलवंत' नाम से लिखते थे। क्रांतिकारी शिव वर्मा 'प्रभात' छद्मनाम का
उपयोग करते थे।
पत्रिका के इस अंक की महत्वपूर्ण विषय सूची इसलिए दी जा रही है ताकि पाठक
रचनाओं के शीर्षक और रचनाकारों के नामों से परिचित हो सकें।
क्रम को सात भागों में इस प्रकार बाँटा गया है : - (1.) पंद्रह कविताएँ :-
प्राणदंड (रामचरित उपाध्याय); फाँसी (कुमार बी.ए.); मृत्यु में जीवन
(विद्याभास्कर शुक्ल); अंतिम भाव (आनंदी प्रसाद श्रीवास्तव); संदेश (सूर्यनाथ
तकरु); रज्जुके (एक एम एस सी); प्रणय वध (अनाम); शहीद (प्रभात); फाँसी की डोर
(प्रो रामनारायण मिश्र); डायर (रसिकेश); मैना की क्षमापत्र-प्रतीक्षा
(दुर्गादत्त त्रिपाठी); प्रश्नोत्तर (नवीन); भयंकर पाप (कन्हैयालाल मिश्र
'प्रभाकर'); फाँसी (एक राष्ट्रीय आत्मा); फाँसी के तख्ते से (शोभाराम
'धेनुसेवक') (2.) पाँच कहानियाँ :- फाँसी (विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक); प्राण बध
(मूल विक्टर ह्यूगो; अनुवाद चतुरसेन शास्त्री); विद्रोही के चरणों में
(जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज'); जल्लाद (उग्र); फंदा (आचार्य चतुरसेन शास्त्री)।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रेमचंद युग के तीनों महान लेखकों
(कौशिक; उग्र और आचार्य) की ये कालजयी कहानियाँ प्रथम बार फाँसी अंक में ही
प्रकाशित और चर्चित हुईं। (3.) बारह लेख :- प्राण दंड : प्राचीन भारतीय
विचारकों का मत (आचार्य रामदेव एम ए); फाँसी की सजा (रायसाहब हरविलास जी
शारदा); तांतिया भील और उसकी फाँसी (एक नीमाड़ी); फ्राँस की राज्यक्रांति के
कुछ रक्तरंजित पृष्ठ (रघुवीर सिंह बी ए); ईसा के पवित्र नाम पर (संकलित);
भारतीय दंडविधान और फाँसी (मनोहर सिंह); सन 57 में दिल्ली के लाल दिन (ख्वाजा
हसन निजामी देहलवी); फाँसी के भिन्न तरीके (रमेश प्रसाद बी एस सी) सन 57 के
कुछ संस्मरण (संकलित); फ्रांस में स्त्रियों का प्राणदंड (त्रिलोचन पंत बी ए);
बंदा बहादुर का बलिदान (श्री मुक्त 220); संस्कृत साहित्य में प्राण वध (जयदेव
शर्मा विद्यालंकार)। (4.) चार इतिवृत्त :- स्कॉटलैंड की रानी मेरी का कत्ल
(प्रीतम सिंह); चार्ल्स का कत्ल (राजेंद्रनाथ); महाराज नंदकुमार को फाँसी
(कल्याण सिंह); मृत्युंजय सुकरात (श्रीकृष्ण)। (5.) दो नाटक :- कानूनीमल की
बहस (जे पी श्रीवास्तव); पिता अब्राहिम लिंकन का वध (संपादक)। (6.) हास्य
व्यंग्य :- दूबेजी की चिट्ठी (विजयानंद दूबे)। दूबे जी के हास्य-व्यंग्य में
फाँसी पर ही बड़ी गहरी और मार्मिक चोट की गई है। (7.) विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ
: - पृष्ठ 244 से लेकर 322 तक में 50 से ऊपर ऐसे क्रांतिकारियों का ब्यौरा
उनकी संक्षिप्त जीवनी सहित दिया गया है; जिन्हें ब्रिटिशराज में फाँसी दी गई
थी। कुछ के परिचय चित्र सहित मौजूद हैं। आचार्य लिखते हैं कि 325 पृष्ठ छापकर
भी आधे से अधिक लेख तथा कविताएँ प्रकाशित नहीं हो सकीं, जिनमे अनेकों
विद्वानों के लेख भी देरी से आने के कारण शामिल हैं, इसका हमें वास्तव में
बड़ा खेद है। पर निश्चय यह किया गया है कि यदि इस विशेषांक का हिंदी संसार ने
उचित सत्कार किया तो आगामी मई का चाँद भी फाँसी अंक के नाम से ही एक दूसरा
विशेषांक प्रकाशित किया जाए।
आचार्य द्वारा चाँद का 'फाँसी अंक' का संपादकीय भी पाँच शीर्षकों के अंतर्गत
बाँटा गया है। 1. दंड का निर्णय; 2. अपराध का विकास; 3. कानून और उसका विकास;
4. क्रांतिवाद; 5. फाँसी। इन शीर्षकों के अंतर्गत देश-विदेश के अनेकों
उद्धाहरण आचार्य चतुरसेन जी ने हमारे सम्मुख रखे हैं और हम सब की अंतर आत्मा
को झकझोरा है। खुद ईसाइयत का हवाला देते हुए आचार्य ने संपादकीय की शुरुआत में
लिखा है - 'ईसाइयत का एक परम धर्म सिद्धांत है 'Judge not' - अर्थात निर्णय मत
कर! कोई मनुष्य चाहे जितना भी योग्य विद्वान हो, वह निर्भ्रांत नहीं हो सकता।
यदि मनुष्य के निर्णय में कहीं परमाणु बराबर भी भूल हो गई, तो वह उसके हाथ से
अन्याय हुआ और यदि यह अन्याय ऐसे व्यक्ति से और ऐसे स्थान से हुआ कि जिसे समाज
और राज्य सत्ता ने न्यायाधिकार की स्वच्छंदता दी है, तो यह अक्षम्य अपराध हुआ
समझना चाहिए।'
यहाँ चाँद 'फाँसी' अंक, में प्रकाशित दो कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रयोजन मात्र इतना भर है कि, फाँसी का दर्द कवियों ने भी कितनी गहराई से
महसूस किया था। 'फाँसी' नामक पहली कविता के कवि का नाम 'एक राष्ट्रीय आत्मा'
है तो दूसरी कविता शोभाराम जी 'धेनुसेवक' ने 'फाँसी के तख्ते से' शीर्षक से
लिखी है :-
'
फाँसी
(एक राष्ट्रीय आत्मा)
फाँसी के फंदे में डाकू कह, जो फाँसे जाते हैं;
उनसे बढ़कर उन लोगों को, हम अपराधी पाते हैं।
निरपराध जनता का रण में, जो नित रुधिर बहाते हैं;
नर-घातक नृशंस हैं फिर भी, जो नरपाल कहाते हैं।
दमन निरत दुश्मन के मन पर, क्या अधिकार जमाया है?
अगणित अबलाओं का तूने विधवा-वेश बनाया है!
तूने क्रूर दृष्टि से अपनी, कितने ही घर घाले हैं;
अमित अशक्त अबोध सरल शिशु हा अनाथ कर डाले हैं!
बंधुहीन हा बंधु अनेकों, पड़कर तेरे पाले हैं,
पुत्रहीन कर वृद्ध पिता को, किए स्वकर मुख काले हैं।
अरी निश्चरी सर्वनाश का, यह क्या भाव समाया है?
अगणित अबलाओं का तूने विधवा-वेश बनाया है!!
***
'
फाँसी के तख्ते से
(शोभाराम जी 'धेनुसेवक')
देश-दृष्टि में, माता के चरणों का मैं अनुरागी था।
देश-द्रोहियों के विचार से, मैं केवल दुर्भागी था।।
माता पर मरने वालों की, नजरों में मैं त्यागी था।
निरंकुशों के लिए अगर मैं, कुछ था तो बस बागी था।।
देश-प्रेम के मतवाले कब, झुके फाँसियों के भय से।
कौन शक्तियाँ हटा सकी हैं, उन वीरों को निश्चय से।।
हो जाता है शक्तिहीन जब, शासन अतिशय अविनय से।
लखता है जग बलिदानों की, पूर्ण विजय तब विस्मय से।।
वीर शहीदों के शोणित से, राष्ट्र-महल निर्माण हुए।
उत्पीड़क बन राजकुलों के, भाग्य-दीप निर्वाण हुए।।
माता के चरणों पर अर्पित, जिन देशों के प्राण हुए।।
रहे न पल भर पराधीन फिर, प्राप्त उन्हें कल्याण हुए।।
***
1857 ई. की त्रासदी को व्यक्त करते दो लेख इस अंक में हैं। एक लेख - ख्वाजा
हसन निजामी साहब की उर्दू किताब 'कलमे-तड़प' से; जिसका शीर्षक 'सन 57 में
दिल्ली के लाल दिन' लिखा हुआ है। दूसरा लेख - 'भारत में अँग्रेजी राज्य' नामक
अप्रकाशित पुस्तक से, जिसे संपादक द्वारा संकलित किया हुआ है। आज की तारीख में
1857 के विप्लव पर अनेकानेक लेख, कविताएँ, कथा-कहानियाँ मौजूद हैं। लेकिन
अँग्रेजी हुकूमत के दौरान ऐसे लेख प्रकाशित करना अपने आप में ही किसी क्रांति
से कम नहीं था। 1857 के वक्त देशभर में ब्रिटिशराज के विरुद्ध जनआक्रोश का जो
क्रांति स्वर उभरा था। उसे बड़ी निर्ममता के साथ अँग्रेजों ने कुचला था।
'सन 57 के संस्मरण' में 12 शीर्षकों के अंतर्गत संकलित अंश (कोट्स) हैं; जो
अँग्रेज इतिहासकारों द्वारा ही लिखे गए पुस्तकों का इंग्लिश सहित हिंदी
रूपांतरण है। कुछ चित्र भी दिए गए हैं : - 1. अँग्रेजी सेना द्वारा ग्रामों का
जलाया जाना; 2. निर्दोष भारतीय जनता का संहार; 3. ग्राम-निवासियों सहित
ग्रामों का जलाया जाना; 4. असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार; 5. कत्लेआम;
6. तोप के मुँह से उड़ाया जाना; 7. मनुष्यों का शिकार; 8. सती चौरा घाट का
हत्या कांड; 9. अँग्रेज स्त्रियों और बच्चों की हत्या; 10. कानपुर में
फाँसियाँ; 11. पंजाब का ब्लैकहोल और अजनाले का कुआँ; 12. दिल्ली में कत्लेआम
और लूट।
यहाँ संकलित लेख 'सन 57 के संस्मरण' के 'दो चित्र' नमूना हेतु पाठकों के लिए
प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
अँग्रेजी सेना द्वारा ग्रामों का जलाया जाना, एक अँग्रेज अपने पत्र में लिखता
है: - 'We set fire to a large village which was full of them. We surrounded
them, and when they came rushing out of the flames, we shot them!' (Charles
Ball's Indian Mutiny, Vol. I, pp. 243-44)
अर्थात - 'हमने एक बड़े गाँव में आग लगा दी, जो कि लोगों से भरा हुआ था। हमने
उन्हें घेर लिया और जब वे आग की लपटों में से निकलकर भागने लगे तो हमने उन्हें
गोलियों से उड़ा दिया।'
असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार, इतिहास लेखक होम्स लिखता है: - 'Old men
had done us no harm, helpless women, with sucking infants at their chests,
felt the weight of our vengeance no less than the vilest male
factors.'(Holmes, Scpoy War, pp. 229-30.)
अर्थात 'बूढ़े आदमियों ने हमें कोई नुक्सान न पहुँचाया था; असहाय स्त्रियों
से, जिनकी गोद में दूध पीते बच्चे थे, हमने उसी तरह बदला लिया जिस तरह बुरे से
बुरे आदमियों से।'
***
इसके अलावा ख्वाजा हसन निजामी ने 'सन 57 में दिल्ली के लाल दिन' नामक लेख में
मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की गिरफ्तारी और उनके बेटों के कत्ल का मार्मिक
विवरण प्रस्तुत किया है। इस लेख के अनुसार मेजर हडसन ने 100 सवारों और अपने
मुखबिरों मुंशी रज्जब अली और मिर्जा इलाहीबख्श की मदद से शहजादों मिर्जा मुगल;
मिर्जा खिजर सुलतान; मिर्जा अबूबकर और मिर्जा अब्दुल्ला को पकड़ने में कामयाबी
पाई। जब कैदी मौजूदा जेलखाने के करीब पहुँचे तो हडसन साहब ने बादशाह जफर और
उनकी बेगम जीनत महल और जमाबख्त की पालकियों को एक तरफ ठहरा दिया। फिर चारों
शहजादों को रथों से उतारा और अपने हाथ से हडसन ने उनका कत्ल करके चुल्लू भर
खून पिया और बुलंद आवाज में कहा, 'अगर मैं इन शहजादों का खून न पीता तो मेरा
दिमाग खराब हो जाता, क्योंकि इन लोगों ने मेरी कौम की बेकस औरतों और बच्चों के
कत्ल में हिस्सा लिया था।' इस लेख में बादशाह और उनकी बेगम आदि के चित्र भी
दिए गए हैं।
विप्लव-यज्ञ की आहुतियाँ (पृष्ठ 244-322) का आरंभ 'कुका-विद्रोह के बलिदान' से
शुरू होता है। जिसे 'निर्भय' जी ने लिखा है। 'चापेकर (विषय सूची में 'चाफेकर'
भी अंकित है।) बंधु' नामक लेख में (तीन भाइयों को उनके साथी के साथ फाँसी दे
दी गई); इसके लेखक का नाम 'सैनिक' रखा गया है। 'श्री कन्हाईलाल दत्त' पर लिखे
लेख में 'वंशी' नाम दिया गया है। 'श्री सत्येंद्र कुमार बसू' की जीवनी लेखक
'किसान' नाम से दर्ज है। 'श्री मदनलाल ढींगरा' पर लिखे लेख के लेखक का नाम
'वसंत' दिया हुआ है। 'श्री अमीरचंद' पर 'गौतम' नाम लिखा है। 'श्री अवधबिहारी'
की जीवनी 'विद्रोही' ने लिखी है। 'श्री भाई बालमुकुंद' पर लेखक का 'रमेश' नाम
लिखा है। 'श्री वसंतोकुमार विस्वास' पर लेख 'विद्रोही' द्वारा लिखा गया है।
'श्री भाई भागसिंह' की जीवनी लेखक 'नटवर' नाम से लिखी गई है। 'श्री भाई
वतनसिंह' को 'चकेश' ने कलमबद्ध किया है। 'श्री मेवा सिंह' को लिपिबद्ध करने
वाले का नाम 'कोविद' दिया गया है। 'श्री कांशीराम' जी के साथ 'श्री रहमत अली
शाह' को भी फाँसी हुई थी। शाह की जीवनी उपलब्ध नहीं हो पाई थी। इनका लेखक
'बंदी' नाम से किताब में दर्ज है। 'श्री गंधा सिंह' की जीवनी 'लक्ष्मण' द्वारा
लिपिबद्ध है। 'श्री करतार सिंह' जी की जीवनी शहीदे-आजम भगत सिंह द्वारा उपलब्ध
कराई गई थी; लेकिन किताब में संपादक ने उनका छद्म नाम 'बलवंत' प्रयुक्त किया
है। 'श्री विष्णुगणेश पिंगले' की जीवनी 'वीरेंद्र' ने लिखी है। 'श्री जगत
सिंह' के लेखक 'सुरेंद्र' हैं। 'श्री बलवंत सिंह' जी की जानकारी 'मुकुंद' नामक
लेखक से प्राप्त हुई। 'डॉ. मथुरासिंह' को 'ब्रिजेश' ले लिपिबद्ध किया है।
'श्री बंता सिंह' पर 'गिरीश' नाम दर्ज है। 'श्री रंगा सिंह' की जीवनी को
'घनश्याम' द्वारा उपलब्ध कराया। 'श्री वीर सिंह' के लिपिबद्ध कर्ता 'यादव' जी
हैं। 'श्री उत्तम सिंह'; 'डॉ. अरुड सिंह'; 'श्री केदार सिंह'; और 'श्री जीवन
सिंह' इन चारों क्रांतिकारियों के लेखक 'पथिक' नाम से किताब में दर्ज हैं।
'बाबू हरिनाम सिंह' की जीवनी 'अज्ञात' (ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' जी का छद्म नाम
था); 'श्री सोहनलाल पाठक' को 'सुबोध' ने लिपिबद्ध किया है। 'देशभक्त सूफी
अंबाप्रसाद' की जीवनी के लेखक भी 'अज्ञात' नाम से दर्ज हैं। 'भाई राम सिंह' के
लेखक 'भानु' हैं। 'श्रीभान सिंह' को 'धनेष' ने लिखा है। 'श्री यतींद्रनाथ
मुकर्जी' पर जानकारी में 'एक युवक' का नाम दिया गया है। 'श्री नलिनी वाक्च्य'
की जीवनी को 'सूर्यनाथ' प्रकाश में लाये। 'श्री ऊधम सिंह' का जीवनवृत 'पञ्चम'
ने उपलब्ध कराया। 'पंडित गेंदालाल दीक्षित' की जीवनी पर (काकोरी के शहीद)
रामप्रसाद 'बिस्मिल' जी का नाम दर्ज है। 'श्री खुशीराम' के जीवनी लेखक पर 'एक
दर्शक' नाम खुदा हुआ है। 'श्री गोपीमोहन साहा' की जीवनी को 'भवभूति' नाम के
लेखक द्वारा पत्रिका में जगह दी गई है। 'बोमेली-युद्ध के चार शहीद' को मधुसेन
जी ने लिखा है। 'श्री घना सिंह' पर 'चतुरानन' नाम दर्ज है। 'श्री बंतासिंह
धामियाँ' के लेखक 'सेनापति' हैं। 'श्री वरयाम सिंह घुग्गा' की जीवनी 'भूषण' ने
लिखी है। 'श्री किशन सिंह गर्गज्ज' को मोहन नामक लेखक ने लिखा है। 'श्री संता
सिंह' को 'वीरसिंह' ने कागज पर दर्ज कराया। 'श्री दलीप सिंह' की जीवनी को
'कपिल' जी ने प्रकाशमान किया। 'श्री नंद सिंह' के लेखक 'नटनाथ' हैं। 'श्री
कर्मसिंह' को 'प्रभात' ने लिखा। 'श्री रामप्रसाद बिस्मिल' जी की जीवनी को
'प्रभात' (शिव वर्मा का ही छद्म नाम है) ने लिखा। 'श्री राजेंद्रनाथ लहरी' की
जानकारी 'संतोष' ने दी। 'श्री रोशन सिंह' की जीवनी के लेखक रूपचंद हैं। और अंत
में 'श्री अशफाकुल्ला खाँ' की जीवनी लेखक पर 'श्री कृष्ण' नाम दर्ज है।
दो वीरों के फाँसी के उपरांत के दो चित्र देखिए - अमर बाल क्रांतिकारी
'खुदीराम बोस' (उम्र 18 वर्ष) पर अलग से लेख श्री शारदाप्रसाद भंडारी द्वारा
लिखा गया है। लेखक ने अंत में बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है,
'खुदीराम बोस की सुंदर चिता बनाई गई। धू-धू करके चिता जल उठी। काली बाबू ने ही
सुगंधित पदार्थ, काष्ठ और घृत की आहुति दी। अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए परस्पर
छीना-झपटी होने लगी। कोई सोने की डिब्बी में, कोई चाँदी के और कोई हाथी दाँत
के छोटे-छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भर ले गए। एक मुट्ठी भस्म के लिए
हजारों स्त्री-पुरुष प्रमत्त हो उठे थे।'
***
फाँसी के बाद जब अशफाक का शव फैजाबाद से शाहजहाँपुर लाया जा रहा था तो लखनऊ
स्टेशन पर सैकड़ों की भीड़ जमा थी। एक अँग्रेजी अखबार के संवाददाता ने लिखा था
- 'The Public of Lucknow thronged at the station to see the last remains of
their beloved Ashfaqa and the old men were weeping as if they have lost
their own Son.'
अर्थात - लखनऊ की जनता अपने प्यारे अशफाक के अंतिम पुण्य दर्शनों के लिए बैचैन
होकर उमड़ आई थी और बृद्ध लोग इस प्रकार रो रहे थे; मानो उनका अपना ही पुत्र
खो गया हो।
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देशभक्ति की अमित ज्योत जलाते इस अंक को सभी पाठकगण; शोधार्थी और भारतीय
इतिहास की सच्ची और स्टीक जानकारी रखने वाले पाठक जरूर पढ़ें। यह अपने निजी
किताब घर में रखने लायक पुस्तक है। इसमें सीखने, जानने के लिए बहुत कुछ है।
जिसे जीवन भर पढ़ा जा सकता है। बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। और अंत में अपने एक
दोहे से सभी क्रांतिकारियों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहूँगा -
फिदा वतन पर जो हुआ, दिल उस पर कुर्बान।
जीवन उसका धन्य है, और मृत्यु वरदान।।